चप्पल

                            हम सब एक दूसरे के गुनाहगार से लगते हैं

                            इस तीर्थ के तल में ना जाने कितने कब्रिस्तां हैं


वेस्टर्न उत्तर प्रदेश का अनेकों गाँव से घिरा एक नामचीन रेल्वे स्टेशन. स्टेशन पर अच्छी खासी भीड़. इसी भीड़ में बख़्सों के ढेर से घिरा एक परिवार.  ट्रेन आने ही वाली है. सबके चेहरे गर्मी से बेहाल हैं, और इन सब में सबसे ज्यादा बेहाल हैं घर के मुखिया, पिता.... शुक्र है कि इनके चारों बच्चे साथ नहीं हैं.. अभी तो तीन के लिए ही ट्रेन में सीट मिल जाए तो गनीमत है.. दो बहनें और करीब तीन बरस का छोटा भाई. मम्मी ने भाई को गोद में लिया हुआ है.. दूसरे हाथ में अटैची है. छोटी ने बड़ी का हाथ कसके थामा है, उसके चेहरे पर डर के भाव हैं, शायद भीड़ से डरती है या फिर तेज़ी से नज़दीक आती ट्रेन से.. या फिर दोनों से.. 

बड़ी के एक हाथ में सामान है. जैसे ही ट्रेन आकर रुकती है आबादी उग्र होकर एक दूसरे को धक्का देते हुई ट्रेन पर लपकती है. भीड़ का डरावना तांडव है. पापा तेज़ी में सारे बक्से ट्रेन में चढ़ाकर पूरे परिवार को ट्रेन में चढ़ाते हैं. इसी बीच धक्का मुक्की में ट्रेन पर चढ़ते हुए छोटी की एक चप्पल निकलकर स्टेशन पर ही गिर जाती है. छोटी पलटकर उन विशाल पर्छाइयों के नीचे धबी अपनी चप्पल ढूंढने लगती है. छोटी, छोटी है, कुछ कर नहीं पाती. ट्रेन स्टेशन छोड़ने लगती है और स्टेशन पर पड़ी चप्पल बिछड़ती हुई ट्रेन को दूर तक देखती रहती है.

ट्रेन के अंदर फ़ासले नदारद हैं... गनीमत की पापा के गाँव से कोई जान पहचान वाले ने अपनी सीट माँ को देदी.. माँ भाई को लेकर वहाँ बैठ जाती है... तभी छोटी का ध्यान माँ के पास वाली सीट पर जाता है, एक आदमी छोटी को लगातार देख रहा है. छोटी को उसकी नज़रें चुभती है, वो गर्दन झुका लेती है.. ध्यान जाता है पैरों पर, उसे अपना वो सूना पैर अच्छा नहीं लगता. दुखी होकर माँ को देखती है... धीमे से आवाज़ देती है.. माँ भाई को दूद पिला रही है... छोटी की आवाज़ शोरगुल में खोकर रह जाती है, माँ ना सुन सकी, ना समझ सकी.... 

कुछ देर बाद छोटी को भी सीट मिल जाती है. वो आदमी छोटी के सामने ही बैठा है, ट्रेन में अभी भी भीड़ इतनी है की सब एक दूसरे से लगकर बैठे हैं. तभी छोटी को महसूस होता है जैसे उसके एक पाओं पर कुछ चल रहा है... जैसे उसके दोनों पाओं को जकड़ लिया गया है.. वो घबरा जाती है. साहस जुटाकर देखती है कि उसके पैरों को सामने बैठे उस शक्स ने पकड़ा हुआ है. वो आदमी छोटी को घूर रहा है.

अभी दस साल ही हुए हैं छोटी को दुनिया में आये हुए, उसे नहीं पता की इस तरह पकड़ने का क्या मतलब है. इस पकड़ से जो दर्द और डर उसे महसूस हो रहा है, उसे कैसे उसी आदमी की बगल बैठे पापा से कहना है. वो सहमी सी गर्दन झुकाकर बैठी रहती है. चेहरा डर से लाल पड़ गया है. वो आदमी छोटी के पैर नाप रहा है, दबोच रहा है... 

स्टेशन आया, सब उतरे, छोटी ने पलटकर देखा, वो आदमी दूसरी तरफ निकल रहा है, छोटी की आँखें लाल हैं... पर चेहरे पर कोई भाव नहीं, ना ही कोई आँसु, ना बताया ही उसने किसी को.... 

चलते चलते छोटी अपने दूसरे पैर की चप्पल भी वहीं स्टेशन पर छोड़कर आगे बढ़ जाती है...... 

 





                 

                                         

                 "थोड़ी मासूमियत मुझसे छीन ली गयी

                                           जो बाकी थी........ मैंने खुद ही छोङ दी "






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